गोपी-उद्धव संवाद
श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध में भक्ति रस चर्चा का अद्भुत प्रसाद है, जिसको पाकर उद्धव गोपियों के ऋणी हो गए । ज्ञान के अभिमान का जो कुछ मल था, वह भी धुल गया तथा मन निर्मल हो गया । साथ ही ऐश्वर्य कोटि के भक्ति-उपासक उद्धवजी को माधुर्य कोटि के भक्ति की उपासिका गोपाङ्गनाओं का महाभाव प्रसाद भी प्राप्त हुआ ।
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुमर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।
( श्रीमद्भागवत १०/ ४७/६१ )
मन को निर्मल बनाने वाला माधुर्य एवं ऐश्वर्य कोटि का यह दिव्य संवाद ही गोपी-उद्धव संवाद है । यह ब्रह्म से भगवान् तक की यात्रा है ।
जब गोपियों को ज्ञात हुआ कि उद्धव भगवान् श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आये हैं, तब उन्होंने एकान्त में मिलने पर उनसे श्यामसुन्दर का कुशल समाचार पूछा । उद्धव ने उनके समाचार के साथ साथ कुछ ज्ञान-चर्चा की और गोपाङ्गनाओं ने प्रेम भक्ति की चर्चा से उद्धव के उस ज्ञान को दिव्यतिदिव्य बना दिया । तथा उनकी ऐश्वर्य कोटि की भक्ति को माधुर्य कोटि की भक्ति से महका दिया ।
इस गोपी उद्धव संवाद के मध्य में एक भ्रमर भी वहाँ पर प्रकट होता है और श्री राधा रानी के चरणों पर गुंजार करने लगता हैं, जिससे एक गीत की उत्पत्ति होती हैं, जिस गीत का नाम हैं भ्रमरगीत ।
अनेक विद्वानों ने माना है कि वह भ्रमर कोई और नहीं, अपितु; स्वयं भगवान् श्याम सुंदर ही श्याम भ्रमर बनकर वहाँ पधारे थे ।
उद्धव कई महीनों तक ब्रज में रहे तथा जाते-जाते उन्होंने विधाता से यही वरदान माँगा कि यदि पुनः मुझपर कृपा हो और मैं जन्म प्राप्त करूँ, तो ब्रज की लता, पता अथवा औषधि बन जाऊँ, जिनसे इन गोपाङ्गनाओं के चरणों की धूलि मेरे मस्तक पर पड़ सके ।
इन्हीं दिव्य भावों को लिए उद्धव उन गोपिकाओं का स्मरण करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण के पास जाते हैं । इस दिव्यातिदिव्य संवाद को श्रवण करने मात्र से हृदय शुद्ध, पवित्र एवं भगवान् की भक्ति के रस से आप्लावित हो जाता है । गोपी-उद्धव संवाद की सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि अभिमान रहित ज्ञान और वह भी भक्ति-युक्त हो, जिसे प्राप्त करने वाले सहज ही भगवान् के अतिशय प्रिय बन जाते हैं ।
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