ईमानदारी और पुरुषार्थ से धन कमाओ

ईमानदारी और पुरुषार्थ से धन कमाओ

अपने व्यवसाय से खूब धन कमाओ और उसे उत्तम कार्यों में खर्च करो, इससे तुम्हारी यश, कीर्ति बढ़ेगी । (अथर्ववेद ३/२४/५)

वेदों में धनोपार्जन की महत्ता को स्वीकार किया गया है । मनुष्य केवल अपने दोनों हाथों से एक ही कार्य न करें बल्कि समाज के अन्य वर्गों को भी सहयोग लेकर सैकड़ों हाथों से धन कमाए । उसे अपनी सारी प्रतिभा, क्षमता और पुरुषार्थ अधिक से अधिक धन कमाने में लगाना चाहिए ।

अब प्रश्न उठता है कि यह सब क्यों करें ? क्या अपने उपयोग के लिए करें ? इसका उत्तर है नहीं । संसार में जो धन, संपत्ति है, सब परमपिता परमेश्वर की है । हमारे व्यवसाय और पुरुषार्थ से जो हमें मिलता है । वह भी भगवान् की ही है और उन्हें की कृपा से ही मिलती है । भगवान् ने मुझे उस संपत्ति का ट्रस्टी बनाया है । अपनी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त हमें उससे अधिक धन या वस्तुओं का उपयोग करने का अधिकार नहीं है । वह सब धन हमें पुनः समाज के पहुंचा देना चाहिए । उसे लोकहित के उत्तम कार्य में खर्च करना चाहिए । कमाया हुआ धन तो थोड़े समय तक ही हमें लाभ देता है पर दान देने से जो यश प्राप्त होता है वह जन्म, जन्मांतरों तक सुख प्रदान करता है । जिस प्रकार खेत में बोने से एक दाना, हजार दानों के रूप में हमें प्राप्त होता है, उसी प्रकार शुभ कार्यों हेतु दिया गया दान असंख्य गुना बढ़कर हमें यश और सौभाग्य प्रदान करता है ।

शास्त्रों में धन के प्रयोग के बारे में स्पष्ट रूप से कहा गया है जो धन ईमानदारी से कमाया है उसके पांच भाग करिए – धर्म के लिए, यश के लिए, अर्थ के लिए, स्वयं के लिए और स्वजनों के लिए । सबसे पहले धर्म का भाग निकालना होता है । धर्म के लिए दान का अर्थ होता है “गुप्त दान” । किसी को पता भी ना चले और शुभ कार्यों हेतु किसी उचित पात्र ( व्यक्ति ) को यह धन दे दें ।

यश के लिए दान का अर्थ है अस्पताल बनवाना, धर्मशाला बनवाना, छात्रवृत्ति देना, पेड़ लगवाना आदि । दुर्घटना और दैवीय आपदा में लोगों को योग्य मदद अवश्य करनी चाहिए । तीसरा भाग अर्थ के लिए है अर्थात् अर्थोपार्जन में, धन को बढ़ाने में, उसे काम धंधे में लगाने में, व्यापार में तथा खेती-बाड़ी में लगाना । चौथा भाग स्वयं के लिए और पांचवा भाग अपने संबंधियों के लिए । इसी धन से रोटी-कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करें और सुख सुविधाओं की व्यवस्था करें ।

इस प्रकार शास्त्रों में दान की महत्ता सर्वाधिक है । इसी से परमेश्वर के अनुदान वरदान की हम पर सतत वर्षा होती रहती है । दान से शत्रुता समाप्त होती है । सार्वजनिक कार्यों के लिए दिया गया दान सबके हित में होता है । धन, ज्ञान, शक्ति, प्रसन्नता जो भी सम्भव हो दूसरों में बांटते रहो । कहा गया है कि हाथ की शोभा दान देने में है ।

मनुष्य के पास देने को बहुत कुछ है, मनुष्य तो प्रेम का सागर है उसके पास हंसी के फूलों का पूरा बगीचा है । इन्हें बांटो, स्वयं खिलो और दूसरों को भी खिलाते चलो । मनुष्य को ईमानदारी और पुरुषार्थ से ही धन कमाना चाहिए और सत्कार्यों में उसका प्रयोजन करना चाहिए ।

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Vaidik Sutra