जीवन में ज्ञान और कर्म का समन्वय जरूरी

जीवन में ज्ञान और कर्म का समन्वय जरूरी

किसी भी धार्मिक ग्रन्थ, वेदमन्त्र या पाठ्य पुस्तकों को रटने से वास्तविक लाभ नहीं मिलता, हमें तो उस पुस्तक में लिखे नियमों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए ( ऋग्वेद १/२२/१९ )

धर्मराज युधिष्ठिर के विद्यार्थी जीवन की कथा है :- एक बार आचार्य ने सभी छात्रों को एक मन्त्र सिखाया “सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायान्मा प्रमदः”  और उसे याद करके आने को कहा । अगले दिन सभी छात्रों ने मन्त्र को सुना दिया, पर युधिष्ठिर ने कहा कि मुझे यह मन्त्र याद नहीं है । इस प्रकार चार-पाँच दिन निकल गए, तब उन्होंने एक दिन स्वयं आचार्यजी से कहा कि मुझे अब यह मन्त्र याद हो गया है । सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से मन्त्र को याद करने में इतने दिन कैसे लग गए । पूछने पर उन्होंने बताया कि मुझे इस मन्त्र को आत्मसात करने में इतने दिन लग गये और अब मैंने इसे पूरी तरह से याद कर लिया है ।यही भारतीय संस्कृति का सार है कि किसी भी मन्त्र, ग्रन्थ या पाठ को केवल रट लेने से ही काम नहीं चलता, उसे आत्मसात कर व्यवहार में लाना चाहिए । मङ्गल और श्रेयस्कर कार्यों से जो मिलता है वही यथार्थ ज्ञान है । अहंकार, बेईमानी, आलस्य, चोरी आदि सिखाने वाला ज्ञान, वास्तविक ज्ञान नहीं होता । 

अज्ञानता की अनुभूति करा दे, नम्र बना दे, तन्मय कर दे, वही असली ज्ञान है । जो जीवन में अवतरीत न हो, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुन्दर, श्रेष्ठ और सात्विक न बनाये वह ज्ञान कैसे हो सकता है ?

आजकल अधिकांश जगहों पर श्रेष्ठ ज्ञान का उपहास किया जा रहा है । सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, किताबों और व्याख्यानों तक सिमटती जा रही हैं । व्यावहारिक जीवन में असत्य और हिंसा करने वाले लोग ही ज्यादा सफल हैं । यह असत् ज्ञान ही मानव के दुःखों की जड़ है । ढोंग और ढकोसले से मनुष्य स्वयं को धोखा देता है ।

जीवन में जब तक ज्ञानयोग और कर्मयोग का समन्वय नहीं होगा तब तक हमें व्यक्तिगत जीवन में सफलता और सुख-शान्ति नहीं मिलेगी । वेद, पुराण आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन करने से जो सद्ज्ञान प्राप्त हो वह हमारे अंतः करण में प्रविष्ट होकर हमारे आचरण का एक भाग बन जाये, तभी विद्याध्ययन की सार्थकता है । सद्ज्ञान से अपने आचरण को निखारना ही चरित्र निर्माण है ।

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Vaidik Sutra