वैदिक यात्रा

जीवात्मा से परमात्मा की ओर, संसार से स्व की ओर की जाने वाली एक दिव्य यात्रा. . .

याति त्राति रक्षतीति वेदानुकूल वेदशास्त्र सम्मत या यात्रा सा वैदिक यात्रा

yāti trāti rakṣatīti vedānukūla vedaśāstra sammata yā yātrā sā vaidika yātrā

यात्रा का अर्थ है – याति त्राति रक्षतीति यात्रा जो रक्षापूर्वक अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति कराती है, वही यात्रा है । अब विचार यह करना है कि मानव जन्म का परम लाभ व चरम लक्ष्य क्या है ? तो मानव जन्म का परम लाभ व चरम लक्ष्य यही है कि अन्त समय में भगवान् की स्मृति हो जाये –

जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः
(श्रीमद्भागवतमहापुराण ०२/०१/०६)

कहने-सुनने पर बड़ी सरल लग रही है यह बात, अत्यन्त कठिन है । गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी की वाणी है –

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं ॥
(श्रीरामचरितमानस, किष्किंधाकांड ०९/०३)

तो मानव जीवन का यह परम लाभ व चरम लक्ष्य प्राप्त कैसे हो ? तो यहाँ एक बात स्पष्ट समझने योग्य है कि वेदशास्त्रों के द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण किये बिना यह असम्भव है ।

अत: वैदिक अनुभवों व अनुभूतियों के द्वारा सर्वशक्तिमान् की प्राप्ति के लिये की जाने वाली एक दिव्य यात्रा, जिसकी रूप-रेखा स्वयं सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने रची है । वही परमात्मा ऋषि-मुनियों के द्वारा संकलित पवित्र वेदशास्त्रों के माध्यम से स्वयं तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करते हैं, इस यात्रा को सुखद बनाते हैं । परन्तु; गुरु के बिना यह यात्रा अपूर्ण ही है, क्योंकि गुरु ही वेदशास्त्रों के मर्म को सुलभता से समझाते हुए अपने जीवन में उतारने की दिव्य कला सिखाते हैं, जिससे मनुष्य इस भवसागर को सहज ही पार कर जाता है ।

अतः वेदशास्त्रों के माध्यम से गुरु के निर्देशन में होने वाली यात्रा ही ‘वैदिक यात्रा’ है । जो एक मात्र परम सत्य की यात्रा है । अन्य सभी यात्रा आधारहीन एवं काल्पनिक है । इस वैदिक-यात्रा के पथ पर चलने वाले पथिक व पथिकाओं का परिवार ही वैदिक यात्रा परिवार है, जिसके मुखिया स्वयं ठा. श्रीराधामाधव युगल विहारी सरकार हैं । यहाँ शास्त्र सम्मत मार्ग का ही अनुशीलन करने की प्रेरणा दी जाती है । क्योंकि जो मनुष्य अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये शास्त्र में लिखित आदेशों का पालन नहीं करते, वे अपने जीवन में न तो पूर्णता को ही प्राप्त होते हैं, न सुख और न उत्तमगति को ही प्राप्त करते हैं, अर्थात् लोक भी नहीं सँवार पाते और परलोक भी बिगड़ जाता है । इसकी पुष्टि श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं ।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌ ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता १६/२३)

अतः शास्त्रों के प्रमाण को आधार मानकर विवेक पूर्वक समझते हुए उसका अनुसरण करना चाहिये । यही इस वैदिक-यात्रा परिवार की आधारशिला है।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता १६/२४)

अतः मनुष्य को सदैव शास्त्रों को प्रमाण मानते हुए ही कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय लेना है । तो आयें, वैदिक यात्रा के माध्यम से जीवन जीने की इस अद्भुत शैली को गुरुकृपा से समझें तथा देवदुर्लभ मानव जन्म के परम लाभ व चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हुए इस जीवन को दिव्यातिदिव्य बनायें ।

Vaidik Yatra

"चलो चलें अब उस नगरी, जिसे प्रेम की नगरी कहते हैं
जहाँ मान और अपमान नहीं, मनमस्त दीवाने रहते हैं ।।"

  • वैदिक-पथिक अपने से बड़ों को प्रतिदिन प्रणाम करेंगे और उनकी धर्मपरक आज्ञा का पालन भी करेंगे ।
  • वैदिक-पथिक प्रतिदिन आत्मचिन्तन या सद्ग्रन्थ अध्ययन के लिए कुछ समय अवश्य निकालेंगे ।
  • वैदिक-पथिक कोई भी खाद्य सामग्री या परिधान प्रभु को अर्पण करके ही स्वीकार करेंगे।
  • २४ घण्टे में कम से कम १-२ घण्टे प्राकृतिक वातावरण में ( प्रातः कालीन या सायंकालीन भ्रमण ) समय यापन करने का यथासंभव प्रयास करेंगे ।
  • मन में क्रोध मात्सर्यादि मनोवेगों के आने पर श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीमद्भागवतभागवतमहापुराण, महापुरुषों के सद्वचन पढ़ने-सुनने का प्रयास करेंगे, मनोदोष अपने आप शान्त हो जायेंगे ।
  • वैदिक-पथिक आपस में या आसपास अपने प्रियजनों के साथ महीनें में एक दो एक बार तो सुन्दरकाण्ड या संकटमोचन, हनुमान चालीसा अथवा सत्संग सद्चर्चा आदि अवश्य करेंगे । ताकि अपने सदनुभव आपस में बाँट सकें तथा एक दूसरे के प्रति परस्पर अनुराग हो । यह प्रयोग आपस की दूरियों को घटाकर अपनत्व के भाव का भी सूजन करेगा । ऐसे ही कुछ सरल प्रयोग हैं, जिनका अवलम्बन लेकर हम वैदिक-यात्रा परिवार के सदस्य बन आत्मानन्द की ऊंँचाइयों का अनुभव कर सकते हैं । तो आइये हम भी इसका हिस्सा बनें।
Vaidik Sutra